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श्रीकन्हैया जी महाराज

विश्व प्रख्यात भागवत् कथा वक्ता

Month

December 2015

संत कबीर

समय रहते भजन करो दो बहने चक्की पर गेहूं पीस रही थी पीसते पीसते एक बहन गेहूं के दाने खा भी रही थी। दूसरी बहन उस को बीच बीच में समझा रही थी।देख अभी मत खा घर जाकर आराम से बेठ कर चोपड़ कर चूरी बनाकर खायेंगे लेकिन फिर भी दूसरी बहन खा भी रही थी। पीस भी रही थी। कुछ देर बाद गेहूं पिस कर कनस्तर में डालकर दोनों

घर की तरफ चल पड़ी।

अचानक रास्ते में कीचड़ में गिरने से सारा आटा खराब हो गया।

इस पर कबीर दास जी ने लिखा है:-

कबीर आटो पडयो कीच में। कछु न आयो हाथ।।

पीसत पीसत चाबयो। सो ही निभयो साथ।।

अर्थात समस्याओं से भरे जीवन में रहते हुवे ही उस सच्चे परमात्मा और वाहेगुरु से अपनी प्रीत लगाये रखनी है ।न की अच्छा समय आने का इंतज़ार करना है।गुरु संग की गया प्रीत और परतीत अंत समय साथ निभायेगी

राधे राधे

श्रीकन्हैया जी महाराज🙏🏻🌷🔔🔔🔔

गीता जयंति

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः|

यच्छेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्||

 

गीता जयंती और मोक्षदा एकादशी की सभी श्रद्धालुओं को शुभ कामनाएँ ………

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गीता माहात्म्य पर श्रीकृष्ण ने पद्म पुराण में कहा है कि भवबंधन (जन्म-मरण) से मुक्ति के लिए गीता अकेले ही पर्याप्त ग्रंथ है| गीता का उद्देश्य ईश्वर का ज्ञान होना माना गया है|

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स्वयं भगवान ने दिया है गीता का उपदेश ……….

विश्व के किसी भी धर्म या संप्रदाय में किसी भी ग्रंथ की जयंती नहीं मनाई जाती| हिंदू धर्म में भी सिर्फ गीता जयंती मनाने की परंपरा पुरातन काल से चली आ रही है क्योंकि अन्य ग्रंथ किसी मनुष्य द्वारा लिखे या संकलित किए गए हैं, जबकि गीता का जन्म स्वयं श्रीभगवान के श्रीमुख से हुआ है ………

या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनि:सृता।।

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श्रीगीताजी की उत्पत्ति धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में मार्गशीर्ष मास में शुक्लपक्ष की एकादशी को हुई थी। यह तिथि मोक्षदा एकादशी के नाम से विख्यात है। गीता एक सार्वभौम ग्रंथ है। यह किसी काल, धर्म, संप्रदाय या जाति विशेष के लिए नहीं अपितु संपूर्ण मानव जाति के लिए हैं। इसे स्वयं श्रीभगवान ने अर्जुन को निमित्त बनाकर कहा है इसलिए इस ग्रंथ में कहीं भी श्रीकृष्ण उवाच शब्द नहीं आया है बल्कि श्रीभगवानुवाच का प्रयोग किया गया है।

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इसके छोटे-छोटे 18 अध्यायों में इतना सत्य, ज्ञान व गंभीर उपदेश हैं, जो मनुष्य मात्र को नीची से नीची दशा से उठाकर देवताओं के स्थान पर बैठाने की शक्ति रखते हैं।

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वसुदेव सुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम् | देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ||

श्रीकन्हैया जी महाराज

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विवाह पंचमी

जय श्री राधे।

आज का लेख

श्री कन्हैया जी महाराज के कलम से✒

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आज विवाह पंचमी का पावन दिवस है।

 

विवाह पंचमी पर भगवान श्रीराम एवं जगत जननी माता सीताजी का शुभ विवाह हुआ था।

 

विवाह केवल स्त्री और पुरुष के गृहस्थ जीवन में प्रवेश का ही प्रसंग नहीं है बल्कि यह जीवन को संपूर्णता देने का अवसर है।

 

श्रीराम के विवाह के जरिए हम विवाह की महत्ता और उसके गहन अर्थों से रूबरू हो सकते हैं।

 

भारत में कई स्थानों पर विवाह पंचमी को बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।

मार्गशीर्ष (अगहन) मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी को भगवान श्रीराम तथा जनकपुत्री जानकी (माता सीता) का विवाह हुआ था, तभी से इस पंचमी को ‘विवाह पंचमी पर्व’ के रूप में मनाया जाता है।

 

पौराणिक धार्मिक ग्रंथों के अनुसार इस तिथि को भगवान रामजी ने जनक नंदिनी सीताजी से विवाह किया था।

 

तुलसीदासजी कहते हैं कि:- ‘श्रीराम ने विवाह द्वारा मन के तीनों विकारों काम, क्रोध और लोभ से उत्पन्न समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया गया है।’

 

श्री रामकिंकर जी महाराज ने राम विवाह की बड़ी ही सुंदर व्याख्या करते हुए लिखा है:-

 

‘संसार के विवाह और श्रीराम के मंगलमय विवाह में अंतर क्या है?

 

यह जो भगवद्-रस है, वह व्यक्ति को बाहर से भीतर की ओर ले जाता है, और बाहर से भीतर जाना जीवन में परम आवश्यक है।

व्यवहार में भी आप देखते हैं, अनुभव करते हैं कि जब तीव्र गर्मी पड़ने लगे, धूप हो तो आप क्या करते हैं, बाहर से भीतर चले जाते हैं।

 

वर्षा में भी आप बाहर से भीतर चले जाते हैं, अर्थात बाहर चाहे वर्षा या धूप हो, घर में तो आप सुरक्षित हैं।

 

इसी प्रकार जीवन में भी कभी वासना के बादल बरसने लगते हैं, क्रोध की धूप व्यक्ति को संतप्त करने लगती है, मनोनुकूल घटनाएं नहीं घटती हैं, ऐसे समय में अगर हम अंतर्जगत में, भाव राज्य में प्रविष्ठ हो सकें तो एक दिव्य शीतलता, प्रेम और आनंद की अनुभूति होगी।

 

भगवान श्री सीताराम के विवाह को हम अन्तर्हृदय में देखें, ध्यान करें, लीला में स्वयं सम्मिलित हों, इस विवाह का उद्देश्य है।’

 

इस तरह से देखा जाए तो श्रीराम विवाह के गंभीर अर्थ की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं।

वे हमें जीवन के इस महत्वपूर्ण प्रसंग के वास्तविक अर्थ से रूबरू करवाते हैं।

 

श्री रामकिंकर जी महाराज आगे लिखते हैं:-

 

‘श्रीराम के विवाह में घटनाएं केवल मनोरंजन प्रधान नहीं, सांसारिक व्यवहार की अपेक्षा

मनस्तत्त्व की प्रधानता है पर यहां मन, बुद्धि, चित्त के द्वारा हम परमात्मा का साक्षात्कार कर सकते हैं।’

 

इस विवाह के संदर्भ में गोस्वामीजी ने वर्णन किया है कि विवाह को ज्ञानियों ने किस दृष्टि से देखा, योगियों ने क्या अर्थ लिया, भक्तों ने इसमें कैसा परमानंद पाया?

और उन्होंने दो कथित विरोधी काम और राम में विलक्षण समन्वय तब बैठाया, जब विवाह मंडप में दोनों को एक साथ प्रस्तुत किया।

 

विवाह का प्रमुख देवता ‘काम’ है, पर इस

प्रसंग में ‘काम’ राम का विरोधी न रहकर सहयोगी बन गया।

 

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम-सीता के शुभ विवाह के कारण ही विवाह पंचमी का दिन अत्यंत पवित्र माना जाता है।

भारतीय संस्कृति में श्रीराम-सीता आदर्श दंपति हैं।

 

श्रीराम ने जहां मर्यादा का पालन करके आदर्श पति और पुरुषोत्तम पद प्राप्त किया वहीं माता सीता ने सारे संसार के समक्ष अपने पतिव्रता

धर्म के पालन का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया।

 

इस पावन दिन सभी दंपतियों को श्रीराम-सीता से प्रेरणा लेकर अपने दांपत्य को मधुरतम बनाने का संकल्प करना चाहिए।

 

श्री राम-जानकी का विवाह पंचमी के दिन विधि-विधान के साथ जनकपुरी से 14 किलोमीटर दूर ‘उत्तर धनुषा’ नाम स्थान पर हुआ था है।

 

जनकपुर वर्तमान में नेपाल में स्थित है, यहां कुछ दूर उत्तर धनुषा में बताया जाता है कि रामचंद्रजी ने इसी जगह पर धनुष तोड़ा था। पत्थर के टुकड़े को इस प्रसंग का अवशेष बताया जाता है।

 

पूरे वर्षभर और खासकर ‘विवाह-पंचमी’ पर यहां दर्शनार्थियों की भीड़ रहती है।

 

विवाह ऐसा संस्कार है जिसे प्रभु श्रीराम और श्रीकृष्ण ने भी अपनाया।

 

भगवान रामजी ने अहंकार के प्रतीक धनुष को तोड़ा।

यह इस बात का प्रतीक है कि जब दो लोग एक बंधन में बंधते हैं तो सबसे पहले उन्हें अहंकार को तोड़ना चाहिए और फिर प्रेम रूपी बंधन में बंधना चाहिए।

 

यह प्रसंग इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि दोनों परिवारों और पति-पत्नी के बीच कभी अहंकार नहीं टकराना चाहिए क्योंकि अहंकार ही आपसी मनमुटाव का कारण बनता है।

श्री कन्हैया जी महाराज

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बरसाना और नंदगांव

आज भी बरसाना और नंदगांव जैसे गाँव आपको दुनिया में कहीं नहीं मिलेंगे

 

दोनों में सिर्फ पांच छह मील का फर्क है !! ऊंचाई से देखने पर दोनों एक जैसे ही दीखते हैं !!

 

आज तक बरसाना वासी राधा को अपनी बेटी और नंदगांव वाले कान्हा को अपना बेटा मानते हैं !! 5160 बरस बीत गए परन्तु उन लोगों के भावों में फर्क नहीं आया !!

 

आज तक बरसाने की लड़की नंदगांव में ब्याही नहीं जाती सिर्फ इसलिए की नया रिश्ता जोड़ लिया तो पुराना भूल जाएगा !! हमारा राधाकृष्ण से प्रेम कम ना हो इसलिए हम नया रिश्ता नहीं जोड़ेंगे आपस में !!

 

आज भी नंदगांव के कुछ घरों की स्त्रियां घर के बाहर मटकी में माखन रखती हैं कान्हा ब्रज में ही है वेश बदल कर आएगा और माखन खायेगा !!

 

जहां 10 -12 बच्चे खेल रहे हैं उनमे एक कान्हा जरूर है ऐसा उनका भाव है आज भी !!

 

लेकिन आज भी बरसाने का वृद्द नंदगांव आएगा तो प्यास चाहे तड़प ले पर एक बूँद पानी नहीं पियेगा नंदगांव का क्योंकि उनके बरसाने की राधा का ससुराल नंदगांव है !! और बेटी के घर का पानी भी नहीं पिया जाता उनका मानना आज भी जारी है !! इतने प्राचीन सम्बन्ध को आज भी निभाया जा रहा है !!

 

धन्य है ब्रज भूमि का कण कण

 

करोड़ों बार प्रणाम मेरे प्रियतम प्रभु की जनम भूमि ,लीलाभूमि व् प्रेमभूमि को

 

प्रेम से बोलना ही पडेगा।।

जय जय श्री राधे।

श्री कन्हैया जी महाराज वृनदावन

महाभारत कोई काल्पनिक घटना नहीं, सच साबित करते हैं ये 16 तथ्य

 

यहां पर देखें

http://www.bbcbharat.com/mahabharata-actually-happened/

ब्रह्म

ब्रह्म बनने का अभ्यास नहीं करना है, केवल जानना है अपने ब्रह्मत्व को। यदि ऐसा है तो ब्रह्माभ्यास, आत्मचिन्तन व तमाम साधनाएँ करने को क्यों कहा जाता है? ठीक से समझ लेना जरूरी है कि ये सब साधनाएँ ब्रह्म बनने के लिए नहीं हैं बल्कि जीवपने का जो उल्टा अभ्यास हो गया है उसे मिटाने के लिए हैं। उल्टा अभ्यास मिट गया, जीव मिट गया तो हम ब्रह्म ही हैं। जीव ईश्वर नहीं हो सकता। जीव को ईश्वर बनाने का प्रयास बेकार है। लेकिन जीव ब्रह्म तो है ही। तरंग सागर नहीं हो सकती लेकिन तरंग जलरूप तो है ही। जीव को अपने ब्रह्मत्व का स्मरण नहीं है उसका कारण है अविद्या, अज्ञान। अविद्या में आया हुआ चैतन्य जीव है और माया में आया हुआ चैतन्य ईश्वर है। जीव अविद्या के आधीन हैं लेकिन ईश्वर माया के आधीन नहीं है। ईश्वर माया के स्वामी हैं। जीव में से अविद्या को हटा दो, ईश्वर में से माया को हटा दो दोनों एकरूप ही हैं, ब्रह्म ही हैं। हमें कोई पूछे कि, ‘जगत कितना बड़ा है?’ तो कहें- ‘साढ़े पाँच फीट का।‘ इस साढ़े पाँच फीट के देह को भूल जाओ तो सारा जगत गायब। प्रगाढ़ निद्रा के समय मन सो जाता है, अहंभाव नहीं रहता, देह का भान नहीं रहता तो जगत की प्रतीति भी नहीं होती। हमारे लिये जगत का अभाव हो जाता है। उस समय कोई दुःख भी नहीं रहता। जाग्रतावस्था में ही देह से अहंभाव निकाल दें तो शोक व दुःख कहाँ रहेंगे? देहभाव दूर होते ही ताजगी, आनंद, उत्साह का अनुभव होगा जो आत्मा का स्वभाव है। देहभाव हटाने के लिए ‘मैं आत्मा हूँ‘ यह भाव लाना है। अभ्यास से शांति एवं आनंद की स्थिति सहज बन जायेगी।।

श्री कन्हैया जी महाराज

वृनदावन

प्रभु की लीला

शरशय्या में पड़े भीष्म देव की आँखों मेँ देह त्याग के समय आँसू आते देख अर्जुन ने श्री कृष्ण से पूछा,”हे माधव, कितना आश्चर्य है! स्वयं पितामह, जो सत्यवादी ,जितेन्द्रिय और ज्ञानी हैं, जो अष्टवसुओं में से एक हैं,वे भी देह को त्यागते समय माया के कारण रो रहे हैं!” श्रीकृष्ण ने जब यह बात भीष्म से कही, तो वे बोले, ” कृष्ण, तुम अच्छी तरह जानते हो कि मैं देह के लिए नहीं रो रहा हूँ,मैं तो इसलिए रो रहा कि भगवान की लीला को मैं कुछ समझ न पाया।जिनका नाम मात्र जपने से लोग विपदाओं से तर जाते हैं वे ही भगवान मधुसूदन स्वयं पाण्डवों के सखा और सारथि के रूप में विद्यमान होते हुए भी पाण्डवों की विपत्तियों का अन्त नहीं है”

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पाप कहां कहां तक जाता है?

 

एक बार एक ऋषि ने सोचा कि लोग गंगा में पाप धोने जाते हैं,

तो इसका मतलब हुआ कि सारे पाप गंगा में समा गए और गंगा भी पापी हो गयी .

अब यह जानने के लिए तपस्या की,

कि पाप कहाँ जाता है ?

तपस्या करने के फलस्वरूप देवता प्रकट हुए ,

ऋषि ने पूछा किभगवन जो पाप गंगा में धोया जाता है वह पाप कहाँ जाता है ?

भगवन ने जहा कि चलो गंगा से ही पूछते है ,

दोनों लोग गंगा के पास गए और कहा कि , हे गंगे ! सब लोग तुम्हारे यहाँ पाप धोते है तो इसका मतलब आप भी पापी हुई .

गंगा ने कहा मैं क्यों पापी हुई , मैं तो सारे पापों को ले जाकर समुद्र को अर्पित कर देती हूँ ,

अब वे लोग समुद्र के पास गए ,

हे सागर ! गंगा जो पाप आपको अर्पित कर देती है तो इसका मतलब आप भी पापी हुए ?

समुद्र ने कहा मैं क्यों पापी हुआ , मैं तो सारे पापों को लेकर भाप बना कर बादल बना देता हूँ ,

अब वे लोग बादल के पास गए,

हे बादल ! समुद्र जो पापों को भाप बनाकर बादल बना देते है ,तो इसका मतलब आप पापी हुए .

बादलों ने कहा मैं क्यों पापी हुआ ,मैं तो सारे पापों को वापस पानी बरसा कर धरती पर भेज देता हूँ ,

जिससे अन्न उपजता है , जिसको मानव खाता है. उस अन्न में जो अन्न जिस मानसिक स्थिति से उगाया जाता है और जिस वृत्ति से प्राप्त किया जाता है ,

जिस मानसिक अवस्था में खाया जाता है ,

उसी अनुसार मानव की मानसिकता बनती है शायद इसीलिये कहते हैं ..” जैसा खाए अन्न, वैसा बनता मन ”अन्न को जिस वृत्ति ( कमाई ) से प्राप्त किया जाता हैऔर जिस मानसिक अवस्था में खाया जाता है

वैसे ही विचार मानव के बन जाते है।

इसीलिये सदैव भोजन शांत अवस्था में पूर्ण रूचि के साथ करना चाहिए ,

और कम से कम अन्न जिस धन से खरीदा जाए वह धन भी श्रम का होना चाहिए।

 

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ब्रज रज

भगवान ने मिट्टी क्यों खायी

श्री कन्हैया जी महाराज कहते हैं🙏🏻

भगवान श्री कृष्ण कि दो पत्नियाँ बताई गई है – एक तो श्री देवी अर्थात लक्ष्मी जी और दूसरी भू देवी, जब भगवान लीला करने के लिए वृंदावन में अवतरित हुए, तो जब भगवान पहली बार भूमि पर पैर रखा क्योकि अब तक बाल कृष्ण चलना नहीं सीखे थे, तो पृथ्वी भगवान से बोली प्रभु ! आज आपने मुझपर अपने चरण कमल रखकर मुझे पवित्र कर दिया. जब भगवान अपनी पत्नी भू देवी जी से बात करते, तो कोई ना कोई आ जाती ,तो भगवान ने झट मिटटी का छोटा-सा टुकड़ा उठाया और मुख में रख लिया और बोले कि पृथ्वी अब तुम मुझसे, मेरे मुख में ही बात कर सकती हो,पृथ्वी का मान बढाने के लिए भगवान ने उनका भक्षण किया.दूसरा कारण यह था कि श्रीकृष्ण के उदर में रहने वाले कोटि-कोटि ब्रह्माण्डो के जीव ब्रज-रज, गोपियों के चरणों की रज-प्राप्त करने के लिए व्याकुल हो रहे थे. उनकी अभिलाषा पूर्ण करने के लिए भगवान ने मिट्टी खायी.भगवान स्वयं ही अपने भक्तो की चरण-रज मुख के द्वारा अपने हृदय में धारण करते है.क्योकि भगवानने तो स्वयं ही कहा है कि में तो अपनेभक्तो का दास हूँ जहाँ से मेरे भक्त निकलते है तो में उनके पीछे पीछे चलता हूँ और उनकी पद रज अपने ऊपर चढ़ाता हूँ क्योकि उन संतो गोपियों कि चरण रज से में स्वयं को पवित्र करता रहता हूँ|

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जय श्री राधे जय श्री कृष्ण

बोलिए वृनदावन बिहारी लाल की जय।।

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