रास पंचाध्यायी में राजा परीक्षित शुकदेव जी से प्रश्न
करते है –
“कृष्णं विदु: परं कान्तं न तु ब्रह्तया मुने
गुणप्रवाहोंपरमस्तासं गुनाधियां कथम् “(12)
अर्थात – राजा परीक्षित जी ने पूँछा -भगवन! गोपियाँ
तो भगवान को केवल अपना प्रियतम ही मानती थी उनका
उनमे ब्रह्म भाव नहीं था इस प्रकार उनकी द्रष्टि प्राकृत
गुणों में ही आसक्त दीखती है. ऐसी स्थिति में उनके लिए
गुणों के प्रवाह रूप इस संसार की निवृति कैसे संभव हुई ?
तब भी परीक्षित जी ने ये प्रश्न किया. शुकदेव जी को ये
प्रश्न कुछ अच्छा नहीं लगा परन्तु राजा परीक्षित जी ने ये
प्रश्न संसार के निमित्त पूंछा इसलिए शुकदेव जी उत्तर में कहते
है –
“उक्तं पुरस्तादेतत्ते चैघ: सिद्धिं यथा गत:
द्विषन्न्पि हषीकेशमं किमुताधोक्षजप्रिया:”(13)
अर्थात – शुकदेव जी कहते है राजन! मै तुमसे पहले भी कह चूका
हूँ कि चेदिराज शिशुपाल भगवान के प्रति द्वेष भाव रखने पर
भी अपने प्राक्रत शरीर को छोड़कर अप्राकृत शरीर से
उनका पार्षद हो गया ऐसी स्थिति में जो समस्त प्रकृति
और उसके गुणों से अतीत भगवान श्री कृष्ण कि प्यारी है,और
उनसे अनन्य प्रेम करती है वे गोपियाँ उन्हें प्राप्त हो जाएँ
इसमें कौन सी आश्चर्य कि बात है.
जहाँ शुकदेव जी ने “भगवान” शब्द से रास की कथा प्रारंभ
की, जहाँ वंशी,शरद पूर्णिमा, रात्रि, चंद्रमा,लता-
पताये,वृक्ष, फूल, सभी कुछ अप्राकृत है. वहाँ गोपियों कैसे
प्राकृत हो सकती है. और बात भाव की है, कैसे भजा ये जरुरी
नहीं है? भजा ये जरुरी है.
भगवान से सम्बन्ध कैसा है ये जरुरी नहीं है सम्बन्ध होना
जरुरी है चाहे किसी भी प्रकार से हो. अनुकूलता का
सम्बन्ध होगा तो चरणारविन्द की प्राप्ति हो जायेगी
और यदि प्रतिकूलता का सम्बन्ध होगा तो मुक्ति मिल
जायेगी.
“कामं क्रोधं भयं स्नेहमैक्यं सौह्दमेव च
नित्यं हरौ विदधतो यान्ति तन्मयतां हि ते”(15)
अर्थात – वह सम्बन्ध चाहे कैसा भी हो -काम का हो
क्रोध का हो या भय का हो स्नेह नातेदारी या सौहार्द
का हो चाहे जिस भाव से भगवान में नित्य निरंतर अपनी
वृतिया जोड़ दी जाए वे भगवान में जुडती है इसलिए
भगवन्मय हो जाती है और उस जीव को भगवान की ही
प्राप्ति होती है.
परीक्षित जी पूंछना चाहते थे – कि सम्बन्ध तो हो, पर
भगवान ब्रह्म है ये भी बोध हो.जैसे अर्जुन और युधिष्ठिर जी
को विषाद हुआ था,अर्जुन को युद्ध से पहले और युधिष्ठिर
जी को युद्ध के बाद तब अर्जुन को तो भगवान ने गीता का
उपदेश दिया था और फिर ब्रह्म स्वरुप से विराट रूप के दर्शन
कराये थे.
और युधिष्ठिर जी को भीष्म पितामह जी के पास ले जाकर
उनसे उपदेश कराया था तब भीष्म पितामह जी ने कहा था
तुम्हे क्या लगता है तुम सब ने युद्ध जीता है सबको मारा
है.अरे ये जो सामने खड़े है इन्हें पहचानो, इन्हें ब्रह्म की द्रष्टि
से देखोगे तो इनका स्वरुप जान सकते हो.और गोपियाँ तो
यहाँ कान्त भाव से देखती है फिर वे कैसे पहचानेगी कि ये
ब्रह्म है? ऐसा प्रश्न परीक्षित जी ने संस्कारों और इतिहास
कि वजह से पूँछा था.
इस पर शुकदेव जी के कहा – गोपियाँ जानती तो है कि वे
ब्रह्म है, पर मानती नहीं है वे तो यही कहती है ब्रह्म होगे
व्रज के बाहर हमारे लिए तो नंद नन्दन है. यदि तुम ब्रह्म होकर
हमारे पास आओगे तो नजर उठकर भी नहीं देखेगी.वे तो
वासुदेव नंदन को भी नहीं मानती केवल नन्दनन्दन श्री कृष्ण
को ही मानती है और वे जानती भी है कि ये ब्रह्म
है.आध्यात्म में अनुभव और अनुभूति दोनों साथ चलती है.
एक बार जब निकुंज में गोपियाँ श्री कृष्ण को ढूँढ रही थी
तब श्री कृष्ण ने सोचा चतुर्भुज रूप रख लेता हूँ ये सोचकर वे
चतुर्भुज रूप होकर बैठ गए,गोपियाँ आई, चतुर्भुज रूप देखकर
विष्णु समझ कर प्रणाम करके ये कहते हुए आगे बढ़ गई,कि ये तो
विष्णु है और हमारे श्यामसुंदर नहीं है, चलो सखी हमतो अपने
नन्द नन्दन को कही दूसरे निकुंज में ढूँढते है.
जैसे कोई डॉक्टर है या वकील है जब काम पर होता है तो
कोट पहन लेता है डॉक्टर सफ़ेद कोट पहन लेता अहे और वकील
काला कोट पहन लेता है,परन्तु जब वे घर आते है तो वे अपना
कोट उतार देते है घर पर वे डॉक्टर वकील नहीं रह जाते वे तो
दुनिया ने लिए वकील और डॉक्टर है. घर पर कोई उन्हें डॉक्टर
वकील साहब कहकर प्रणाम भी नहीं करता .
ठीक इसी प्रकार ननंद नंद कृष्ण भी व्रज से बाहर ये ऐश्वर्य
का कोट पहन लेते है और परन्तु जब व्रज में होते है तो इस कोट
को उतार देते है.
गोपी गीत के चौथे श्लोक में कह भी रही है –
“न खलु गोपिकानन्दनो भवानखिलदेहिनामन्तरादृक
विखनसार्थितो, विश्वगुप्तये सख उदेयिवान सात्वतां कुले ”
भवार्थ – हे हमारे परम सखा ! आप केवल में यशोदा के ही
पुत्र नहीं हो अपितु समस्त देहधारियों के हृदयों में
अन्तस्थ साक्षी हैं.चूँकि भगवान ब्रह्मा ने आपसे
अवतरित होने एवं ब्रह्माण्ड की रक्षा करने के लिए
प्रार्धना की थी इसलिए अब आप यदुकुल में प्रकट हुए हैं.
🌳जय जय श्री राधे🌳
श्री कन्हैया जी महाराज
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