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श्रीकन्हैया जी महाराज

विश्व प्रख्यात भागवत् कथा वक्ता

Month

January 2016

गोपिन् को प्रेम भाव

रास पंचाध्यायी में राजा परीक्षित शुकदेव जी से प्रश्न
करते है –
“कृष्णं विदु: परं कान्तं न तु ब्रह्तया मुने
गुणप्रवाहोंपरमस्तासं गुनाधियां कथम् “(12)
अर्थात – राजा परीक्षित जी ने पूँछा -भगवन! गोपियाँ
तो भगवान को केवल अपना प्रियतम ही मानती थी उनका
उनमे ब्रह्म भाव नहीं था इस प्रकार उनकी द्रष्टि प्राकृत
गुणों में ही आसक्त दीखती है. ऐसी स्थिति में उनके लिए
गुणों के प्रवाह रूप इस संसार की निवृति कैसे संभव हुई ?
तब भी परीक्षित जी ने ये प्रश्न किया. शुकदेव जी को ये
प्रश्न कुछ अच्छा नहीं लगा परन्तु राजा परीक्षित जी ने ये
प्रश्न संसार के निमित्त पूंछा इसलिए शुकदेव जी उत्तर में कहते
है –
“उक्तं पुरस्तादेतत्ते चैघ: सिद्धिं यथा गत:
द्विषन्न्पि हषीकेशमं किमुताधोक्षजप्रिया:”(13)
अर्थात – शुकदेव जी कहते है राजन! मै तुमसे पहले भी कह चूका
हूँ कि चेदिराज शिशुपाल भगवान के प्रति द्वेष भाव रखने पर
भी अपने प्राक्रत शरीर को छोड़कर अप्राकृत शरीर से
उनका पार्षद हो गया ऐसी स्थिति में जो समस्त प्रकृति
और उसके गुणों से अतीत भगवान श्री कृष्ण कि प्यारी है,और
उनसे अनन्य प्रेम करती है वे गोपियाँ उन्हें प्राप्त हो जाएँ
इसमें कौन सी आश्चर्य कि बात है.
जहाँ शुकदेव जी ने “भगवान” शब्द से रास की कथा प्रारंभ
की, जहाँ वंशी,शरद पूर्णिमा, रात्रि, चंद्रमा,लता-
पताये,वृक्ष, फूल, सभी कुछ अप्राकृत है. वहाँ गोपियों कैसे
प्राकृत हो सकती है. और बात भाव की है, कैसे भजा ये जरुरी
नहीं है? भजा ये जरुरी है.
भगवान से सम्बन्ध कैसा है ये जरुरी नहीं है सम्बन्ध होना
जरुरी है चाहे किसी भी प्रकार से हो. अनुकूलता का
सम्बन्ध होगा तो चरणारविन्द की प्राप्ति हो जायेगी
और यदि प्रतिकूलता का सम्बन्ध होगा तो मुक्ति मिल
जायेगी.
“कामं क्रोधं भयं स्नेहमैक्यं सौह्दमेव च
नित्यं हरौ विदधतो यान्ति तन्मयतां हि ते”(15)
अर्थात – वह सम्बन्ध चाहे कैसा भी हो -काम का हो
क्रोध का हो या भय का हो स्नेह नातेदारी या सौहार्द
का हो चाहे जिस भाव से भगवान में नित्य निरंतर अपनी
वृतिया जोड़ दी जाए वे भगवान में जुडती है इसलिए
भगवन्मय हो जाती है और उस जीव को भगवान की ही
प्राप्ति होती है.
परीक्षित जी पूंछना चाहते थे – कि सम्बन्ध तो हो, पर
भगवान ब्रह्म है ये भी बोध हो.जैसे अर्जुन और युधिष्ठिर जी
को विषाद हुआ था,अर्जुन को युद्ध से पहले और युधिष्ठिर
जी को युद्ध के बाद तब अर्जुन को तो भगवान ने गीता का
उपदेश दिया था और फिर ब्रह्म स्वरुप से विराट रूप के दर्शन
कराये थे.
और युधिष्ठिर जी को भीष्म पितामह जी के पास ले जाकर
उनसे उपदेश कराया था तब भीष्म पितामह जी ने कहा था
तुम्हे क्या लगता है तुम सब ने युद्ध जीता है सबको मारा
है.अरे ये जो सामने खड़े है इन्हें पहचानो, इन्हें ब्रह्म की द्रष्टि
से देखोगे तो इनका स्वरुप जान सकते हो.और गोपियाँ तो
यहाँ कान्त भाव से देखती है फिर वे कैसे पहचानेगी कि ये
ब्रह्म है? ऐसा प्रश्न परीक्षित जी ने संस्कारों और इतिहास
कि वजह से पूँछा था.
इस पर शुकदेव जी के कहा – गोपियाँ जानती तो है कि वे
ब्रह्म है, पर मानती नहीं है वे तो यही कहती है ब्रह्म होगे
व्रज के बाहर हमारे लिए तो नंद नन्दन है. यदि तुम ब्रह्म होकर
हमारे पास आओगे तो नजर उठकर भी नहीं देखेगी.वे तो
वासुदेव नंदन को भी नहीं मानती केवल नन्दनन्दन श्री कृष्ण
को ही मानती है और वे जानती भी है कि ये ब्रह्म
है.आध्यात्म में अनुभव और अनुभूति दोनों साथ चलती है.
एक बार जब निकुंज में गोपियाँ श्री कृष्ण को ढूँढ रही थी
तब श्री कृष्ण ने सोचा चतुर्भुज रूप रख लेता हूँ ये सोचकर वे
चतुर्भुज रूप होकर बैठ गए,गोपियाँ आई, चतुर्भुज रूप देखकर
विष्णु समझ कर प्रणाम करके ये कहते हुए आगे बढ़ गई,कि ये तो
विष्णु है और हमारे श्यामसुंदर नहीं है, चलो सखी हमतो अपने
नन्द नन्दन को कही दूसरे निकुंज में ढूँढते है.
जैसे कोई डॉक्टर है या वकील है जब काम पर होता है तो
कोट पहन लेता है डॉक्टर सफ़ेद कोट पहन लेता अहे और वकील
काला कोट पहन लेता है,परन्तु जब वे घर आते है तो वे अपना
कोट उतार देते है घर पर वे डॉक्टर वकील नहीं रह जाते वे तो
दुनिया ने लिए वकील और डॉक्टर है. घर पर कोई उन्हें डॉक्टर
वकील साहब कहकर प्रणाम भी नहीं करता .
ठीक इसी प्रकार ननंद नंद कृष्ण भी व्रज से बाहर ये ऐश्वर्य
का कोट पहन लेते है और परन्तु जब व्रज में होते है तो इस कोट
को उतार देते है.
गोपी गीत के चौथे श्लोक में कह भी रही है –
“न खलु गोपिकानन्दनो भवानखिलदेहिनामन्तरादृक
विखनसार्थितो, विश्वगुप्तये सख उदेयिवान सात्वतां कुले ”
भवार्थ – हे हमारे परम सखा ! आप केवल में यशोदा के ही
पुत्र नहीं हो अपितु समस्त देहधारियों के हृदयों में
अन्तस्थ साक्षी हैं.चूँकि भगवान ब्रह्मा ने आपसे
अवतरित होने एवं ब्रह्माण्ड की रक्षा करने के लिए
प्रार्धना की थी इसलिए अब आप यदुकुल में प्रकट हुए हैं.

          🌳जय जय श्री राधे🌳
           

श्री कन्हैया जी महाराज

भाव से आते हैं मेरे कान्हा

एक व्यक्ति बहुत परेशान था।
उसके दोस्त ने उसे सलाह दी कि
कृष्ण भगवान की पूजा शुरू कर दो।
उसने एक कृष्ण भगवान की मूर्ति घर
लाकर उसकी पूजा करना शुरू कर दी।
कई साल बीत गए लेकिन …
कोई लाभ नहीं हुआ।
एक दूसरे मित्र ने कहा कि
तू काली माँ कीपूजा कर,
जरूर तुम्हारे दुख दूर होंगे।
अगले ही दिन वो एक काली माँ
की मूर्ति घर ले आया।
कृष्ण भगवान की मूर्ति मंदिर के ऊपर
बने एक टांड पर रख दी और
काली माँ की मूर्ति मंदिर में रखकर
पूजा शुरू कर दी।
कई दिन बाद उसके दिमाग में ख्याल आया
कि जो अगरबत्ती, धूपबत्ती
काली जी को जलाता हूँ, उसे तो
श्रीकृष्ण जी भी सूँघते होंगे।
ऐसा करता हूँ कि श्रीकृष्ण का मुँह बाँध देता हूँ।
जैसे ही वो ऊपर चढ़कर श्रीकृष्ण का
मुँह बाँधने लगा कृष्ण भगवान ने उसका
हाथ पकड़ लिया। वो हैरान
रह गया और भगवान से पूछा –
इतने वर्षों से पूजाकर रहा था तब
नहीं आए! आज कैसे प्रकट हो गए?
भगवान श्रीकृष्ण ने समझाते हुए कहा,
“आज तक तू एक मूर्ति
समझकर मेरी पूजा करता था।
किन्तु आज तुम्हें एहसास हुआ कि
“कृष्ण साँस ले रहा है ”
बस मैं आ गया।”
प्यार से कहिये – ” जय श्री कृष्णा “🙏😍

श्री कन्हैया जी महाराज

क्यों मना किया जाता है ”महाभारत” को घर में रखने से,

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पौराणिक धर्मगुरु सिखाते हैं की ”महाभारत” घर में मत रखो क्लेश बढ़ेगा |
???

इस तरह की बातें सारे हिन्दू समाज को ”नपुंसक” बनाने के लिये कही जाती है ताकि विदेशी अपने ”मनोरथ” में सफल हो सके।
वास्तव में, महाभारत में वो सब कुछ है जिसकी जरूरत आज ‘कलयुग’ में है चाहे वो भाई से भाई का ”धोखा” हो या या ”छल” से सत्य/असत्य को जीतना ।

अगर यह माना जाये कि ”महाभारत” रखने से भाइयो में बैर बढ़ता है तो ”पांडवों और कौरवों” में लड़ाई कैसे हो गयी तब तो महाभारत नहीं लिखी गयी थी ?

बेशक महाभारत कोई धार्मिक ग्रंथ नहीं है और 95% पुजारी वर्ग यही मानते है जिसके कारण सारा देश भ्रमित हो गया है|

महाभारत धार्मिक ग्रंथ नहीं है लेकिन वो ”सत्य” के साथ खड़े होने की सीख देता है और धर्मगुरु सिखाते है की इनको घर में ”मत” रखो। कुछ लोग तो यही चाहते हैं कि सबके हाथों में एक ”ढोलक” पकड़ा दे और सबको ”भक्ति रस”, ”विरह रस” और ”श्रृंगार रस” में डुबो डुबो कर ”नचाये” चाहे विदेशी कितने ही घर में घुस जाये लेकिन इनकी ”भक्ति” ना टूटने पाये |

हमारे यहा कितने ”धर्मगुरुओं” ने श्री कृष्ण जी के ”योगी स्वरूप” को सामने लाने के लिये कार्य किया है ? हमारे यहाँ गीता को अगरबत्ती दिखाते हैं , दीपक जलाते है , और पूजा घर में उसको रखते है ,उसके श्लोको को ”रटते और रटाते” है , जबकि हमको चाहिये था, गीता को खुद समझे और दूसरों को समझाये चाहे उसकी पूजा ना करे लेकिन उसका स्मरण् सदैव करें , चाहे उसको पूजा घर में ना रखे लेकिन उसको पवित्र मन से पढ़े और जब शत्रुओं का सामना हो तब जन-जन तक इसको पहुंचाये |

समस्या तो यह है की कोई भी भगवान के नाम पर कुछ भी लिख देता है और हम पूजना शुरु कर देते हैं।

वैसे और भी धारणाएँ प्रचलन में है जैसे, शिव जी की ”नटराज” वाली मूर्ति भी घर में ना रखे इन पाखंडियो से पूछो की इनमे क्या ”भगवानों” से भी ज्यादा ‘बुद्धि’ है या फिर यह कहीं भगवान का ”असली स्वरूप” छिपाना चाहते है ? जब भगवान गुस्सा करते है तो यह बात लोग क्यों छिपा कर रखना चाहते है ? क्या इनको भगवान पर ”भरोसा” नही है या यह अपने हिसाब से भगवान की ”व्याख्या” करना चाहते है ?

वास्तव में ”रामायण व महाभारत” धार्मिक नहीं हमारे ”ऐतिहासिक ग्रन्थ” हैं जिनकी पूजा नही ”पालन” करना चाहिए | यदि आप वेदों को पढ़ने में असमर्थ हैं तो सभी वेद व उपनिषदों का निचोड़ ”गीता” है उसका अध्ययन कर ”सनातन के सत्य” का दर्शन करें |

सिर्फ वेद ही ”ज्ञान” है और गीता ही ”राष्ट्रनीति” है |

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श्री कन्हैया जी महाराज

श्रीमद्भागवत कथा धामपुर में

विश्वप्रख्यात भागवत् के सरस वक्ता
श्रीकन्हैया जी महाराज

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श्री कन्हैया जी महाराज

II श्रीमद्भागवत् II तीसरे अध्याय का माहात्म्य-

श्री भगवान कहते हैं- प्रिये ! जनस्थान में एक जड़ नामक ब्राह्मण था, जो कौशिक वंश में उत्पन्न हुआ था | उसने अपना जातीय धर्म छोड़कर बनिये की वृत्ति में मन लगाया | उसे परायी स्त्रियों के साथ व्यभिचार करने का व्यसन पड़ गया था | वह सदा जुआ खेलता, शराब पीता और शिकार खेलकर जीवों की हिंसा किया करता था | इसी प्रकार उसका समय बीतता था | धन नष्ट हो जाने पर वह व्यापार के लिए बहुत दूर उत्तर दिशा में चला गया | वहाँ से धन कमाकर घर की ओर लौटा | बहुत दूर तक का रास्ता उसने तय कर लिया था | एक दिन सूर्यास्त हो जाने पर जब दसों दिशाओं में अन्धकार फैल गया, तब एक वृक्ष के नीचे उसे लुटेरों ने धर दबाया और शीघ्र ही उसके प्राण ले लिए | उसके धर्म का लोप हो गया था, इसलिए वह बड़ा भयानक प्रेत हुआ |

उसका पुत्र बड़ा ही धर्मात्मा और वेदों का विद्वान था | उसने अब तक पिता के लौट आने की राह देखी | जब वे नहीं आये, तब उनका पता लगाने के लिए वह स्वयं भी घर छोड़कर चल दिया | वह प्रतिदिन खोज करता, मगर राहगीरों से पूछने पर भी उसे उनका कुछ समाचार नहीं मिलता था | तदनन्तर एक दिन एक मनुष्य से उसकी भेंट हुई, जो उसके पिता का सहायक था, उससे सारा हाल जानकर उसने पिता की मृत्यु पर बहुत शोक किया | वह बड़ा बुद्धिमान था | बहुत कुछ सोच-विचार कर पिता का पारलौकिक कर्म करने की इच्छा से आवश्यक सामग्री साथ ले उसने काशी जाने का विचार किया | मार्ग में सात-आठ मुकाम डाल कर वह नौवें दिन उसी वृक्ष के नीचे आ पहुँचा जहाँ उसके पिता मारे गये थे | उस स्थान पर उसने संध्योपासना की और गीता के तीसरे अध्याय का पाठ किया | इसी समय आकाश में बड़ी भयानक आवाज हुई | उसने पिता को भयंकर आकार में देखा फिर तुरन्त ही अपने सामने आकाश में उसे एक सुन्दर विमान दिखाई दिया, जो तेज से व्याप्त था | उसमें अनेकों क्षुद्र घंटिकाएँ लगी थीं | उसके तेज से समस्त दिशाएँ आलोकित हो रही थीं | यह दृश्य देखकर उसके चित्त की व्यग्रता दूर हो गयी | उसने विमान पर अपने पिता को दिव्य रूप धारण किये विराजमान देखा | उनके शरीर पर पीताम्बर शोभा पा रहा था और मुनिजन उनकी स्तुति कर रहे थे | उन्हें देखते ही पुत्र ने प्रणाम किया, तब पिता ने भी उसे आशीर्वाद दिया |

तत्पश्चात् उसने पिता से यह सारा वृत्तान्त पूछा | उसके उत्तर में पिता ने सब बातें बताकर इस प्रकार कहना आरम्भ कियाः ‘बेटा ! दैववश मेरे निकट गीता के तृतीय अध्याय का पाठ करके तुमने इस शरीर के द्वारा किए हुए दुस्त्यज कर्मबन्धन से मुझे छुड़ा दिया | अतः अब घर लौट जाओ क्योंकि जिसके लिए तुम काशी जा रहे थे, वह प्रयोजन इस समय तृतीय अध्याय के पाठ से ही सिद्ध हो गया है |’ पिता के यों कहने पर पुत्र ने पूछाः ‘तात ! मेरे हित का उपदेश दीजिए तथा और कोई कार्य जो मेरे लिए करने योग्य हो बतलाइये |’ तब पिता ने कहाः ‘अनघ ! तुम्हे यही कार्य फिर करना है | मैंने जो कर्म किये हैं, वही मेरे भाई ने भी किये थे | इससे वे घोर नरक में पड़े हैं | उनका भी तुम्हे उद्धार करना चाहिए तथा मेरे कुल के और भी जितने लोग नरक में पड़े हैं, उन सबका भी तुम्हारे द्वारा उद्धार हो जाना चाहिए | यही मेरा मनोरथ है | बेटा ! जिस साधन के द्वारा तुमने मुझे संकट से छुड़ाया है, उसी का अनुष्ठान औरों के लिए भी करना उचित है | उसका अनुष्ठान करके उससे होने वाला पुण्य उन नारकी जीवों को संकल्प करक दे दो | इससे वे समस्त पूर्वज मेरी ही तरह यातना से मुक्त हो स्वल्पकाल में ही श्रीविष्णु के परम पद को प्राप्त हो जायेंगे |’

पिता का यह संदेश सुनकर पुत्र ने कहाः ‘तात ! यदि ऐसी बात है और आपकी भी ऐसी रूचि है तो मैं समस्त नारकी जीवों का नरक से उद्धार कर दूँगा |’ यह सुनकर उसके पिता बोलेः ‘बेटा ! एवमस्तु | तुम्हारा कल्याण हो | मेरा अत्यन्त प्रिय कार्य सम्पन्न हो गया |’ इस प्रकार पुत्र को आश्वासन देकर उसके पिता भगवान विष्णु के परम धाम को चले गये | तत्पश्चात् वह भी लौटकर जनस्थान में आया और परम सुन्दर भगवान श्रीकृष्ण के मन्दिर में उनके समक्ष बैठकर पिता के आदेशानुसार गीता के तीसरे अध्याय का पाठ करने लगा | उसने नारकी जीवों का उद्धार करने की इच्छा से गीतापाठजनित सारा पुण्य संकल्प करके दे दिया |

इसी बीच में भगवान विष्णु के दूत यातना भोगने वाले नरक की जीवों को छुड़ाने के लिए यमराज के पास गये | यमराज ने नाना प्रकार के सत्कारों से उनका पूजन किया और कुशलता पूछी | वे बोलेः ‘धर्मराज ! हम लोगों के लिए सब ओर आनन्द ही आनन्द है |’ इस प्रकार सत्कार करके पितृलोक के सम्राट परम बुद्धिमान यम ने विष्णुदूतों से यमलोक में आने का कारण पूछा |

तब विष्णुदूतों ने कहाः यमराज ! शेषशय्या पर शयन करने वाले भगवान विष्णु ने हम लोगों को आपके पास कुछ संदेश देने के लिए भेजा है | भगवान हम लोगों के मुख से आपकी कुशल पूछते हैं और यह आज्ञा देते हैं कि ‘आप नरक में पड़े हुए समस्त प्राणियों को छोड़ दें |’

अमित तेजस्वी भगवान विष्णु का यह आदेश सुनकर यम ने मस्तक झुकाकर उसे स्वीकार किया और मन ही मन कुछ सोचा | तत्पश्चात् मदोन्मत्त नारकी जीवों को नरक से मुक्त देखकर उनके साथ ही वे भगवान विष्णु के वास स्थान को चले | यमराज श्रेष्ठ विमान के द्वारा जहाँ क्षीरसागर हैं, वहाँ जा पहुँचे | उसके भीतर कोटि-कोटि सूर्यों के समान कान्तिमान नील कमल दल के समान श्यामसुन्दर लोकनाथ जगदगुरु श्री हरि का उन्होंने दर्शन किया | भगवान का तेज उनकी शय्या बने हुए शेषनाग के फणों की मणियों के प्रकाश से दुगना हो रहा था | वे आनन्दयुक्त दिखाई दे रहे थे | उनका हृदय प्रसन्नता से परिपूर्ण था |

भगवती लक्ष्मी अपनी सरल चितवन से प्रेमपूर्वक उन्हें बार-बार निहार रहीं थीं | चारों ओर योगीजन भगवान की सेवा में खड़े थे | ध्यानस्थ होने के कारण उन योगियों की आँखों के तारे निश्चल प्रतीत होते थे | देवराज इन्द्र अपने विरोधियों को परास्त करने के उद्देश्य से भगवान की स्तुति कर रहे थे | ब्रह्माजी के मुख से निकले हुए वेदान्त-वाक्य मूर्तिमान होकर भगवान के गुणों का गान कर रहे थे | भगवान पूर्णतः संतुष्ट होने के साथ ही समस्त योनियों की ओर से उदासीन प्रतीत होते थे | जीवों में से जिन्होंने योग-साधन के द्वारा अधिक पुण्य संचय किया था, उन सबको एक ही साथ वे कृपादृष्टि से निहार रहे थे | भगवान अपने स्वरूप भूत अखिल चराचर जगत को आनन्दपूर्ण दृष्टि से आमोदित कर रहे थे | शेषनाग की प्रभा से उद्भासित और सर्वत्र व्यापक दिव्य विग्रह धारण किये नील कमल के सदृश श्याम वर्णवाले श्रीहरि ऐसे जान पड़ते थे, मानो चाँदनी से घिरा हुआ आकाश सुशोभित हो रहा हो | इस प्रकार भगवान की झाँकी के दर्शन करके यमराज अपनी विशाल बुद्धि के द्वारा उनकी स्तुति करने लगे |

यमराज बोलेः सम्पूर्ण जगत का निर्माण करने वाले परमेश्वर ! आपका अन्तःकरण अत्यन्त निर्मल है | आपके मुख से ही वेदों का प्रादुर्भाव हुआ है | आप ही विश्वस्वरूप और इसके विधायक ब्रह्मा हैं | आपको नमस्कार है | अपने बल और वेग के कारण जो अत्यन्त दुर्धर्ष प्रतीत होते हैं, ऐसे दानवेन्द्रों का अभिमान चूर्ण करने वाले भगवान विष्णु को नमस्कार है | पालन के समय सत्त्वमय शरीर धारण करने वाले, विश्व के आधारभूत, सर्वव्यापी श्रीहरि को नमस्कार है | समस्त देहधारियों की पातक-राशि को दूर करने वाले परमात्मा को प्रणाम है | जिनके ललाटवर्ती नेत्र के तनिक-सा खुलने पर भी आग की लपटें निकलने लगती हैं, उन रूद्ररूपधारी आप परमेश्वर को नमस्कार है | आप सम्पूर्ण विश्व के गुरु, आत्मा और महेश्वर हैं, अतः समस्त वैश्नवजनों को संकट से मुक्त करके उन पर अनुग्रह करते हैं | आप माया से विस्तार को प्राप्त हुए अखिल विश्व में व्याप्त होकर भी कभी माया अथवा उससे उत्पन्न होने वाले गुणों से मोहित नहीं होते | माया तथा मायाजनित गुणों के बीच में स्थित होने पर भी आप पर उनमें से किसी का प्रभाव नहीं पड़ता | आपकी महिमा का अन्त नहीं है, क्योंकि आप असीम हैं फिर आप वाणी के विषय कैसे हो सकते हैं? अतः मेरा मौन रहना ही उचित है |

इस प्रकार स्तुति करके यमराज ने हाथ जोड़कर कहाः ‘जगदगुरो ! आपके आदेश से इन जीवों को गुणरहित होने पर भी मैंने छोड़ दिया है | अब मेरे योग्य और जो कार्य हो, उसे बताइये |’ उनके यों कहने पर भगवान मधुसूदन मेघ के समान गम्भीर वाणी द्वारा मानो अमृतरस से सींचते हुए बोलेः ‘धर्मराज ! तुम सबके प्रति समान भाव रखते हुए लोकों का पाप से उद्धार कर रहे हो | तुम पर देहधारियों का भार रखकर मैं निश्चिन्त हूँ | अतः तुम अपना काम करो और अपने लोक को लौट जाओ |’

यों कहकर भगवान अन्तर्धान हो गये | यमराज भी अपनी पुरी को लौट आये | तब वह ब्राह्मण अपनी जाति के और समस्त नारकी जीवों का नरक से उद्धार करके स्वयं भी श्रेष्ठ विमान द्वारा श्री विष्णुधाम को चला गया |

जय श्री राधे कृष्ण
श्री कन्हैया जी महाराज
8791390423
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श्री कन्हैया जी महाराज

सात वचन विवाह के

सात वचन

विवाह = वि + वाह, अत: इसका शाब्दिक अर्थ है – उत्तरदायित्व का वहन करना। पाणिग्रहण संस्कार को सामान्य रूप से हिंदू विवाह के नाम से जाना जाता है। अन्य धर्मों में विवाह पति और पत्नी के बीच एक प्रकार का बंधन होता है जिसे कि विशेष परिस्थितियों में तोड़ा भी जा सकता है, परंतु हिंदू विवाह पति और पत्नी के बीच कयी जन्मो का सम्बंध होता है जिसे किसी भी परिस्थिति में नहीं तोड़ा जा सकता। अग्नि के सात फेरे लेकर और कयी चोजो को साक्षी मान एक पवित्र बंधन होता हैं। हिंदू विवाह में मे इस संम्बंध को अत्यंत पवित्र माना गया है।
सात फेरों और सात वचन
विवाह के बाद कन्या वर के वाम अंग में बैठने से पूर्व उससे सात वचन लेती है। कन्या द्वारा वर से लिए जाने वाले सात वचन इस प्रकार है।

वचन 1

तीर्थव्रतोद्यापन यज्ञकर्म मया सहैव प्रियवयं कुर्या:,
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति वाक्यं प्रथमं कुमारी !!

(यहाँ कन्या वर से कहती है कि यदि आप कभी तीर्थयात्रा को जाओ तो मुझे भी अपने संग लेकर जाना। कोई व्रत-उपवास अथवा अन्य धर्म कार्य आप करें तो आज की भांति ही मुझे अपने वाम भाग में अवश्य स्थान दें। यदि आप इसे स्वीकार करते हैं तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)
किसी भी प्रकार के धार्मिक कृ्त्यों की पूर्णता हेतु पति के साथ पत्नि का होना अनिवार्य माना गया है। जिस धर्मानुष्ठान को पति-पत्नि मिल कर करते हैं, वही सुखद फलदायक होता है। पत्नि द्वारा इस वचन के माध्यम से धार्मिक कार्यों में पत्नि की सहभागिता, उसके महत्व को स्पष्ट किया गया है।

वचन.2

पुज्यौ यथा स्वौ पितरौ ममापि तथेशभक्तो निजकर्म कुर्या:,
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं द्वितीयम !!

(कन्या वर से दूसरा वचन मांगती है कि जिस प्रकार आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार मेरे माता-पिता का भी सम्मान करें तथा कुटुम्ब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर भक्त बने रहें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)
यहाँ इस वचन के द्वारा कन्या की दूरदृष्टि का आभास होता है। आज समय और लोगों की सोच कुछ इस प्रकार की हो चुकी है कि अमूमन देखने को मिलता है–गृहस्थ में किसी भी प्रकार के आपसी वाद-विवाद की स्थिति उत्पन होने पर पति अपनी पत्नि के परिवार से या तो सम्बंध कम कर देता है अथवा समाप्त कर देता है। उपरोक्त वचन को ध्यान में रखते हुए वर को अपने ससुराल पक्ष के साथ सदव्यवहार के लिए अवश्य विचार करना चाहिए।

वचन-3

जीवनम अवस्थात्रये मम पालनां कुर्यात,
वामांगंयामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं तृ्तीयं !!

(तीसरे वचन में कन्या कहती है कि आप मुझे ये वचन दें कि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं (युवावस्था, प्रौढावस्था, वृद्धावस्था) में मेरा पालन करते रहेंगे, तो ही मैं आपके वामांग में आने को तैयार हूँ।)
वचन-4

कुटुम्बसंपालनसर्वकार्य कर्तु प्रतिज्ञां यदि कातं कुर्या:,
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं चतुर्थं !!

(कन्या चौथा वचन ये माँगती है कि अब तक आप घर-परिवार की चिन्ता से पूर्णत: मुक्त थे। अब जबकि आप विवाह बंधन में बँधने जा रहे हैं तो भविष्य में परिवार की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति का दायित्व आपके कंधों पर है। यदि आप इस भार को वहन करने की प्रतीज्ञा करें तो ही मैं आपके वामांग में आ सकती हूँ।)
इस वचन में कन्या वर को भविष्य में उसके उतरदायित्वों के प्रति ध्यान आकृ्ष्ट करती है। विवाह पश्चात कुटुम्ब पौषण हेतु पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है। अब यदि पति पूरी तरह से धन के विषय में पिता पर ही आश्रित रहे तो ऐसी स्थिति में गृहस्थी भला कैसे चल पाएगी। इसलिए कन्या चाहती है कि पति पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर होकर आर्थिक रूप से परिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम हो सके। इस वचन द्वारा यह भी स्पष्ट किया गया है कि पुत्र का विवाह तभी करना चाहिए जब वो अपने पैरों पर खडा हो, पर्याप्त मात्रा में धनार्जन करने लगे।

वचन-5

स्वसद्यकार्ये व्यवहारकर्मण्ये व्यये मामापि मन्त्रयेथा,
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: पंचमत्र कन्या !!

(इस वचन में कन्या जो कहती है वो आज के परिपेक्ष में अत्यंत महत्व रखता है। वो कहती है कि अपने घर के कार्यों में, विवाहादि, लेन-देन अथवा अन्य किसी हेतु खर्च करते समय यदि आप मेरी भी मन्त्रणा लिया करें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)
यह वचन पूरी तरह से पत्नि के अधिकारों को रेखांकित करता है। बहुत से व्यक्ति किसी भी प्रकार के कार्य में पत्नी से सलाह करना आवश्यक नहीं समझते। अब यदि किसी भी कार्य को करने से पूर्व पत्नी से मंत्रणा कर ली जाए तो इससे पत्नी का सम्मान तो बढता ही है, साथ साथ अपने अधिकारों के प्रति संतुष्टि का भी आभास होता है।

वचन-6

न मेपमानमं सविधे सखीनां द्यूतं न वा दुर्व्यसनं भंजश्चेत,
वामाम्गमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं च षष्ठम !!

(कन्या कहती है कि यदि मैं अपनी सखियों अथवा अन्य स्त्रियों के बीच बैठी हूँ तब आप वहाँ सबके सम्मुख किसी भी कारण से मेरा अपमान नहीं करेंगे। यदि आप जुआ अथवा अन्य किसी भी प्रकार के दुर्व्यसन से अपने आप को दूर रखें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)
वर्तमान परिपेक्ष्य में इस वचन में गम्भीर अर्थ समाहित हैं। विवाह पश्चात कुछ पुरुषों का व्यवहार बदलने लगता है। वे जरा जरा सी बात पर सबके सामने पत्नी को डाँट-डपट देते हैं। ऐसे व्यवहार से पत्नी का मन कितना आहत होता होगा। यहाँ पत्नी चाहती है कि बेशक एकांत में पति उसे जैसा चाहे डांटे किन्तु सबके सामने उसके सम्मान की रक्षा की जाए, साथ ही वो किन्हीं दुर्व्यसनों में फँसकर अपने गृ्हस्थ जीवन को नष्ट न कर ले।

वचन-7

परस्त्रियं मातृसमां समीक्ष्य स्नेहं सदा चेन्मयि कान्त कुर्या,
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: सप्तममत्र कन्या !!

(अन्तिम वचन के रूप में कन्या ये वर मांगती है कि आप पराई स्त्रियों को माता के समान समझेंगें और पति-पत्नि के आपसी प्रेम के मध्य अन्य किसी को भागीदार न बनाएंगें। यदि आप यह वचन मुझे दें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)
विवाह पश्चात यदि व्यक्ति किसी बाह्य स्त्री के आकर्षण में बँध पगभ्रष्ट हो जाए तो उसकी परिणिति क्या होती है। इसलिए इस वचन के माध्यम से कन्या अपने भविष्य को सुरक्षित रखने का प्रयास करती है।
श्री कन्हैया जी महाराज
गोपाल बाग़
श्री धाम वृन्दावन।
8791390423
9675420444

श्री कन्हैया जी महाराज

योगेश्वर श्रीकृष्ण

रासलीला तथा अन्यान्य प्रकरणों में श्रीकृष्ण नाम के साथ महर्षि वेदव्यास के द्वारा ‘योगेश्वर’ शब्द का प्रयोग होते हुए देखकर साधारण पाठकों के हृदय में सन्देह उत्पन्न होता है कि इस प्रकार के पुरुष योगेश्वर कैसे हो सकते हैं । विदेशी लोगों ने तो भ्रमवश श्रीकृष्णभगवान को ‘Incarnation of lust’ अर्थात् कामकलाविस्तार का ही अवतार कह दिया है । हमारे देश के भी कुछ अज्ञ, दुर्बलचेता व्यक्ति इस झगड़े से पिण्ड छुड़ाने के लिए यह फैसला कर देते हैं कि महाभारत और भागवत के कृष्ण भिन्न – भिन्न थे या भागवत के श्रीकृष्ण  को ई व्यक्ति थे ही नहीं, यह केवल बोपदेवद्वारा रचित काल्पनिक चित्रमात्र है । अत: श्रीकृष्णभगवान की योगेश्वर – सत्ता को प्रमाणित करने के लिए इन दोनों शंकाओं का समाधान करना अत्यावश्यक है ।

महाभारत के द्रोणपर्व में संजय के प्रति धृतराष्ट्र की जो उक्ति है उसे पढ़ने पर कोई भी यह नहीं कह सकता कि महाभारत और भागवत के श्रीकृष्ण अलग – अलग हैं, यह उक्ति निम्नलिखित हैं – अर्थात् भगवान वासुदेव श्रीकृष्ण के दिव्य कर्मों की सुनो, जिनके समान कर्म कोई नहीं कर सकता । जिस समय बाल्यावस्था में श्रीकृष्ण गोकुल में थे, उसी समय इनकी अलौकिक शक्ति तीनों लोकों में प्रकट हो गयी हयासुर को मारा था । प्रलंब, नरक, जम्भ, पीठ, मुर आदि असुरों का इन्होंने ही संहार किया था । जरासंध द्वारा सुरक्षित महाबली कंसराज को सारे पायकोंसहित इन्होंने मारा था और युधिष्ठिर के यज्ञ में चेदिराज शिशुपाल का पशु की तरह वध इन्होंने किया था । मेरी सभा में ही इन्होंने जो आश्चर्यजनक कार्य किया था, वैसा दूसरा कौन कर सकता है ? जिनको द्विजगण परमपिता परमात्मा कहते हैं, अब वे पाण्डवपक्ष में होकर युद्ध करेंगे और कौरवों को तथा उनके पक्षवाले राजाओं को मारकर पाण्डवों को राज्य दिलावेंगे । जहां पर भगवान श्रीकृष्ण सारथी और महावीर अर्जुन योद्धा हैं, वहां कौन उनके सामने युद्ध कर सकता है ? दैवविमूढ़ दुर्योधन श्रीकृष्ण – भगवान के स्वरूप को नहीं जान सका, अत: उसका नाश सन्निकट है ।

इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि वृंदावन की लीला तथा महाभारत की लीला करने वाले भगवान श्रीकृष्ण दो नहीं, एक ही थे । अब इस प्रकार लीला करने की आवश्यकता क्या थी ? यह बात पूर्णावतार के स्वरूप पर विचार करने से विदित हो जाती है । श्रीभगवान सत्, चित्, आनंद के स्वरूप थे, अत: उनके पूर्णावतार में सत्, चित तथा आनंद तीनों की लीलाओं का पूर्णरूप से प्रकट होना सर्वथा स्वाभाविक एवं अवश्यंभावी था । सत् के साथ कर्म का, चित् के साथ ज्ञान का और आनंद के साथ भक्ति का संबंध है । इसी कारण इनकी लीला में कर्मयोग का उत्तम आदर्श प्रकट हुआ था, ज्ञानयोग की प्रत्यक्षमूर्ति गीतोपदेश के रूप में प्रकट हुई थी और भक्ति के वीर, करुण, हास्य आदि सप्त गौण रसों तथा दास्य, सख्य, कांत, तन्मय, वात्सल्य आदि सप्त मुख्य रसों के अनेक स्त्री – पुरुष भक्तों ने जन्म लेकर रासलीला आदि के द्वारा उस भक्ति – भावमयी लीला को पूर्ण किया था ।

श्री कन्हैया जी महाराज
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श्री कन्हैया जी महाराज

🌺 रावण ने श्रीराम की मां कौशल्या का भी किया था हरण 🌺

त्रेतायुग में कोशल देश में कोशल नाम का एक राजा था। उसकी विवाह योग्य पुत्री थी, नाम था कौशल्या। राजा कोशल ने अपनी पुत्री का विवाह अयोध्या के राजा दशरथ से करने का निर्णय लिया,और राजा दशरथ को विवाह का प्रस्ताव सुनाने के लिए आमंत्रित किया, जिस समय दूत राजा के पास पहुंचा वह जलक्रीड़ा कर रहे थे।
लगभग उसी समय लंकापति रावण ब्रह्मलोक में ब्रह्माजी के सामने आदरपूर्वक पूछ रहा था कि मेरी मृत्यु किस के हाथों होगी। रावण की बात सुनकर ब्रह्माजी ने कहा कि दशरथ की पत्नी कौशल्या से साक्षात् भगवान विष्णु जी का जन्म होगा। वही तुम्हारा विनाश करेंगे।
ब्रह्माजी की बात सुनकर रावण अपनी सेना के साथ अयोध्या की ओर निकल पड़ा वहां पहुंचकर उसने युद्ध किया और राजा दशरथ को पराजित कर दिया। लड़ाई सरयु के निकट हो रही थी और राजा नौका में थे। रावण ने नौका को तहस-नहस कर दिया, तब राजा दशरथ और उनके मंत्री सुमंत नदी में बहते हुए समुद्र में जा पहुंचे।
उधर रावण अयोध्या से चलकर कोशल नगरी में जा पहुंचा। वहां भयानक युद्ध करके उसने राजा कोशल को भी जीत लिया। इसके बाद कौशल्या का हरण करके खुश होते हुए आकाशमार्ग से लंका की ओर चल पड़ा। रास्ते में समुद्र में रहने वाली तिमंगिल मछली को देखकर रावण ने सोचा कि सभी देवता मेरे शत्रु हैं, कहीं रूप बदलकर वे ही कौशल्या को लंका से न ले जाएं।
इसलिए कौशल्या को इस तिमिंगिल मछली को ही क्यों न सौंप दूं। ऐसा सोचकर उसने कौशल्या को एक संदूक में बंद करके मछली को सौंप दिया, और वह लंका चला गया। मछली संदूक लेकर समुद्र में घूमने लगी। अचानका एक और मछली के आने से वह उसके साथ युद्ध करने लगी और संदूक को समुद्र में छोड़ा दिया।
उसी समय राजा भी अपने मंत्री के साथ बहते हुए समुद्र में पहुच गए थे।
वहां उनकी दृष्टी पेटिका पर पड़ी ,और तभी कौशल्या  ने अपनी आप बीती राजा को सुनाई राजा भी कौसल्या को देख कर आश्चर्य चकित रह गए ।आपस में सम्वाद करने के बाद वह तीनो पुनः सन्दुक में बैठ गए ।वह इस लिए बैठ गए क्यों की ज्यादा देर समय  तक समुद्र के अन्दर रहना ठीक नहीं था ।मछली जब आई तो उसने सन्दूक  को मुख में रख लिया ।
तब अहंकारी रावण ने ब्रह्माजी से कहा मैंने दशरथ को जल में और कौसल्या को सन्दूक़ में छिपा दिया है ।तब ब्रह्मा जी ने आकाशवाणी  के द्वारा कहलवाया आकाशवाणी   ने  कहा की उन दोनों का विवाह हो चूका है।रावण बहुत क्रोधित हुआ।तब ब्रह्ममा जी ने कहा होंनी तो होकर ही रहती है होनी को कोई टाल नही सकता , जब राजादशरथ अयोध्या पहुचे तो उनका विवाह विधि विधान से कौसल्या के  साथ हुआ ।
         🌺 श्री राधे राधे🌺
      श्रीकन्हैया जी महाराज🙏🏻

श्री कन्हैया जी महाराज

🌺ये है राम नाम की महिमा जो जन्म जन्मांतर तक रहती है साथ🌺

भक्त और भगवान के बीच श्रद्धा को चित्रित करती यह कथा अमूमन हिंदू पौराणिक ग्रंथों में मिल जाएगी। कथा के अनुसार अयोध्या में एक निम्न जाति का व्यक्ति रहता था।
उसके पास कुछ धन था, इसलिए वह घमंडी हो गया। लेकिन उसका धन समय के साथ खत्म हो गया। इसलिए वह रोजगार की तलाश में अयोध्या से उज्जैन पहुंच गया।
यहां उसके जीवन-यापन करने की समस्या से छुटकारा मिल गया। उज्जैन में ही उसकी मुलाकात वेदों के ज्ञाता ब्राह्मण से हुई। वह भी शिव भक्त था। लेकिन वह उस व्यक्ति की तरह देवताओं की निंदा नहीं करता था। एक दिन ब्राह्मण ने उस व्यक्ति को एक शिवपूजन की विधि बताई। लेकिन उस व्यक्ति को बात समझ नहीं आई।
ब्राह्मण जानता था कि वह व्यक्ति धर्म-कर्म और भगवान में कोई रुचि नहीं रखता है। लेकिन वह भगवान के प्रति अच्छे भाव नहीं रखता था। एक समय की बात है।
वह व्यक्ति शिव मंदिर में शिवजी का नाम जप रहा था। तभी किसी कारण से गुरुदेव वहां पहुंचे। उस व्यक्ति ने उन्हें देखा लेकिन उसने घमंड के कारण उन्हें प्रणाम तक नहीं किया। लेकिन गुरुदेव अत्यंत दयालु थे। शिष्ट और अनिष्ट व्यवहार से उन्हें क्रोध नहीं आता था।
लेकिन उसी समय एक आकाशवाणी हुई, ‘तुम्हारे ब्राह्मण गुरुदेव अत्यंत दयालु हैं और तुम उनकी निंदा करते हो गुरु से ईर्ष्या करने के कारण तुम्हें करोड़ों वर्षों तक नर्क भोगना होगा।’
शाप की बात सुन गुरुजी एक बार फिर दुःखी हो गए और उन्होंने शिवस्तुति आरंभ कर दी। भगवान प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा, इसे जल्द ही शाप से मुक्ति मिल जाएगी।
उस व्यक्ति ने कई जन्मों के बाद जन्म लिया और मृत्यु हुई। अंत में उसने एक ब्रह्मण के घर जन्म लिया। पूर्व जन्म में जिसकी वह निंदा करता था लेकिन इस जन्म में उसके मुह में सिर्फ राम नाम जप रहता था ।उसके पिता ने उसे पढ़ाया लेकिन उसका मन पढ़ाई में नही लगता था ।एक दिन वह ब्यक्ति भगवान राम का जप करते हुए  सुमेरु पर्वत पर जापहुचा ।वहां लोमश ऋषी एक पेड़ की छाया में बैठे थे । ब्राह्मण ने आदर से उन्हें प्रणाम किया ।ऋषी से वह सगुण भक्ती और निर्गुण भक्ती पर बहस करने लगा ऋषी क्रोधित हो गए ,उन्होंने कहा ,हे मूर्ख तू बहस करता है !तू इसी समय चांडाल पक्षी हो जा ।फिर क्या ,ब्राह्मण तुरन्त कौआ हो गया ,
लेकिन कौआ होकर भी उसकी राम नाम के प्रति भक्ती नहीं गयी।
    🌺श्री राधे राधे🌺
    😊श्रीकन्हैया जी महाराज🙏

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