सो०- जोसुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन ।
करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन ।। १ ।।
जिन्हें स्मरण करने से सब कार्य सिद्ध होते है, जो गुणोंके स्वामी और सुंदर हाथीके मुखवाले है, वे ही बुद्धि राशि और शुभ गुणोंके धाम(श्रीगणेशजी) मुझ पर कृपा करें ।। १ ।।
मूक होइ बाचाल पंगु चढ़ई गिरिबर गहन ।
जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन ।। २ ।।
जिनकी कृपा से गूँगा बहुत सुंदर बोलनेवाला हो जाता है और लँगड़ा-लूला दुर्गम पहाड़पर चढ़ जाता है, वे कलियुग सब पापोको जला डालनेवाले दयालु (भगवान) मुझपर द्रवित हों (दया करे) ।। २ ।।
नील सरोरुह स्याम तरून अरून बारिज नयन।
करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन ।। ३ ।।
जो नील कमल के समान श्यामवर्ण है, पूर्ण खिले हुए लाल कमल के समान जिनके नेत्र हैं और जो सदा क्षीरसागरमें शयन करते है,वे भगवान् (नारायण)मेरे ह्रदय में निवास करें ।। ३ ।।
कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन ।
जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन ।। ४ ।।
जिनका कुन्दके पुष्प और चंद्रमा के समान (गौर) शरीर है, जो पार्वतीजी के प्रियतम और दया के धाम है और जिनका दिनोंपर स्नेह है, वे कामदेवका मर्दन करनेवाले (शङ्करजी) मुझ¬ पर कृपा करें ।। ४ ।।
बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि ।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर ।। ५ ।।
मैं उन गुरु महाराज के चरणकमलकी वंदना करता हूँ, जो कृपा के समुंद्र और नररूप में श्रीहरि ही है और जिनके वचन महामोहरूपी घने अन्धकारके नाश करने के लिये सूर्य-किरणों के समूह हैं ।। ५ ।।
विश्वगौगंगगौरी सेवा संसथान,
श्रीकन्हैयाजी महाराज,
गोपाल बाग़ , वृन्दावन
8791390423
मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम् ।
यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम ।। (1)
अर्जुन बोलेः मुझ पर अनुग्रह करने के लिए आपने जो परम गोपनीय अध्यात्मविषयक वचन अर्थात् उपदेश कहा, उससे मेरा यह अज्ञान नष्ट हो गया है । (1)
श्री कन्हैया जी महाराज
दूर नगरी बड़ी दूर नगरी ।
कैसे आऊं मैं कन्हाई, तोरी गोकुल नगरी ।।
दूर नगरी बड़ी दूर नगरी ।
रात को आऊं कान्हा डर मोहि लागे ।
दिन को आऊं तो देखे सारी नगरी ।।
दूर नगरी बड़ी दूर नगरी ।
सखी संग आऊं कान्हा शर्म मोहि लागे ।
अकेली आऊं तो भूल जाऊं डगरी ।।
दूर नगरी बड़ी दूर नगरी ।
धीरे धीरे चलूँ तो कमर मोरी लचके ।
झटपट चलूँ तो छलकाए गगरी ।।
दूर नगरी बड़ी दूर नगरी ।
‘मीरा’ के प्रभु गिरिधर नागर ।
तुमरे दरस बिन मैं तो हो गयी बावरी ।।
दूर नगरी बड़ी दूर नगरी ।
श्री कन्हैया जी महाराज
सीतापति रामचंद्र रघुपति रघुराई ।
भज ले अयोध्यानाथ दूसरा न कोई ।।
रसना रस नाम लेत, संतन को दरस देत,
बिहँसत मुखचंद मंद सुंदर सुखदाई ।।
दसन दमक दुति रसाल, अयन नयन दृग बिसाल,
भृकुटी मानो धनुष, कीर नासिका सोहाई ।।
केसर को तिलक भाल, मानो रवि प्रातकाल,
स्त्रवन कुंडल झलमलात रतिपति छवि छाई ।।
मोतिन की गले माल, तारागण गण निहार,
मानो गिरी शिखर तीर सुरसरि चलि आई ।।
साँवरो त्रिभंग अंग, काछे कछ कटि निखंग,
मानो माया की छवि आपहि बन आई ।।
सुर नर मुनि सकल देव, सिव बिरंच करत सेव,
कीरत ब्रह्मांड खंड तीन लोक गाई ।।
सखा सहित सरजु-तीर बैठे रघुबंश बीर,
हरखि निरखि ‘तुलसिदास’ चरननरज पाई ।।
श्री कन्हैया जी महाराज
नेह लगो मेरो श्यामसुंदर सौं ।।
आई बसंत, सभी बन फूले, खेतन फूली सरसौं ।
मैं पीरी भई पिया के बिरह में, निकसत प्राण उदर सौं ।।
फागन में सब होरी खेलें अपने अपने बर सौं ।
पिया के बियोग जोगन हो निकसी, धूर उड़ावत
कर सौं ।।
ऊधो जाय द्वारिका कहियो इतनी अरज मोरि हर सौं ।
बिरहबिथा सौं जियरा डरत है, जबसे गये हरि घर सौं ।।
‘सूर’ स्याम मेरी इतनी अरज है, कृपासिन्धु गिरधर सौं ।
नदिया गहरी, नाव पुरानी, अबके उबारो सागर सौं ।।
श्री कन्हैया जी महाराज
प्रभु जी तुम चंदन हम पानी ।
जाकी अंग-अंग बास समानी ॥
प्रभु जी तुम घन बन हम मोरा ।
जैसे चितवत चंद चकोरा ॥
प्रभु जी तुम दीपक हम बाती ।
जाकी जोति बरै दिन राती ॥
प्रभु जी तुम मोती हम धागा ।
जैसे सोनहिं मिलत सोहागा ॥
प्रभु जी तुम स्वामी हम दासा ।
ऐसी भक्ति करै ‘रैदासा’ ।।
गोपाल बाग़ श्रीधामवृन्दावन
भागवत् वक्ता।
श्री कन्हैया जी महाराज
चेतोदर्पणमार्जनं भव-महादावाग्नि-निर्वापणम्
श्रेयःकैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधू-जीवनम् ।
आनंदाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनम्
सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण-संकीर्तनम् ॥१॥
अनुवाद: श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो जो हृदय में वर्षों से संचित मल का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूपी दावानल को शांत करने वाला है । यह संकीर्तन यज्ञ मानवता के लिए परम कल्याणकारी है क्योंकि चन्द्र-किरणों की तरह शीतलता प्रदान करता है। समस्त अप्राकृत विद्या रूपी वधु का यही जीवन है । यह आनंद के सागर की वृद्धि करने वाला है और नित्य अमृत का आस्वादन कराने वाला है ॥à ��॥
नाम्नामकारि बहुधा निज सर्व शक्तिस्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः ।
एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः ॥२॥
अनुवाद: हे भगवन ! आपका मात्र नाम ही जीवों का सब प्रकार से मंगल करने वाला है-कृष्ण, गोविन्द जैसे आपके लाखों नाम हैं। आपने इन नामों में अपनी समस्त अप्राकृत शक्तियां अर्पित कर दी हैं । इन नामों का स्मरण एवं कीर्तन करने में देश-काल आदि का कोई भी नियम नहीं है । प्रभु ! आपने अपनी कृपा के कारण हमें भगवन्नाम के द्वारा अत्यंत ही सरलता से भगवत-प्राप्ति कर लेने में समर्थ बना दिया है, किन्तु मैं �¤ �तना दुर्भाग्यशाली हूँ कि आपके नाम में अब भी मेरा अनुराग उत्पन्न नहीं हो पाया है ॥२॥
तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना ।
अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥३॥
अनुवाद: स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष के समान सहनशील होकर, मिथ्या मान की कामना न करके दुसरो को सदैव मान देकर हमें सदा ही श्री हरिनाम कीर्तन विनम्र भाव से करना चाहिए ॥३॥
न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये ।
मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि ॥४॥
अनुवाद: हे सर्व समर्थ जगदीश ! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दर स्त्री अथवा प्रशंनीय काव्यों का इक्छुक हीं हूँ । मेरी तो एकमात्र यही कामना है कि जन्म-जन्मान्तर मैं आपकी अहैतुकी भक्ति कर सकूँ ॥४॥
अयि नन्दतनुज किंकरं पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ ।
कृपया तव पादपंकज-स्थितधूलिसदृशं विचिन्तय ॥५॥
अनुवाद: हे नन्दतनुज ! मैं आपका नित्य दास हूँ किन्तु किसी कारणवश मैं जन्म-मृत्यु रूपी इस सागर में गिर पड़ा हूँ । कृपया मुझे अपने चरणकमलों की धूलि बनाकर मुझे इस विषम मृत्युसागर से मुक्त करिये ॥५॥
नयनं गलदश्रुधारया वदनं गदगदरुद्धया गिरा ।
पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति ॥६॥
अनुवाद: हे प्रभु ! आपका नाम कीर्तन करते हुए कब मेरे नेत्रों से अश्रुओं की धारा बहेगी, कब आपका नामोच्चारण मात्र से ही मेरा कंठ गद्गद होकर अवरुद्ध हो जायेगा और मेरा शरीर रोमांचित हो उठेगा ॥६॥
युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम् ।
शून्यायितं जगत् सर्वं गोविन्द विरहेण मे ॥७॥
अनुवाद: हे गोविन्द ! आपके विरह में मुझे एक क्षण भी एक युग के बराबर प्रतीत हो रहा है । नेत्रों से मूसलाधार वर्षा के समान निरंतर अश्रु-प्रवाह हो रहा है तथा समस्त जगत एक शून्य के समान दिख रहा है ॥७॥
आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मामदर्शनान्-मर्महतां करोतु वा ।
यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्-तु स एव नापरः ॥८॥
अनुवाद: एकमात्र श्रीकृष्ण के अतिरिक्त मेरे कोई प्राणनाथ हैं ही नहीं और वे ही सदैव बने रहेंगे, चाहे वे मेरा आलिंगन करें अथवा दर्शन न देकर मुझे आहत करें। वे नटखट कुछ भी क्यों न करें -वे सभी कुछ करने के लिए स्वतंत्र हैं क्योंकि वे मेरे नित्य आराध्य प्राणनाथ हैं ॥८॥
श्री कन्हैया जी महाराज
प्रेम समुद्र रूप रस गहिरे कैसे लागै घाट ॥
बेकार्यौ दै जानि कहावत जानि पन्यौ को कहा परी बाट ॥
काहू कौ सर सूधौ न परै मारत गाल गली गली हाट ॥
कहि ‘हरिदास’ बिहारी ही जानो ताको न औघत घाट ॥
श्री कन्हैया जी महाराज
शरणं भव करुणां मयि कुरु दीनदयालो
करुणारस-वरुणालय करिराजकृपालो ।
अधुना खलु विधिना मयि सुधिया सुरभरितं
मधुसूदन मधुसूदन हर मामक-दुरितम् ।।
वरनूपुर वरसुंदर करशोभितवलय
सुरभूसर-भयवारक धरणीधर कृपया ।
त्वरया हर भरमीश्वर सुरवर्य मदीयं
मधुसूदन मधुसूदनं हर मामक-दुरितम् ।।
घृणिमंडलमणिकुंडल फणिमंडलशयन
अणिमादिसुगुणभूषण मणिमंडपसदन ।
विनतासुतघनवाहन मुनिमानसभवन
मधुसूदन मधुसूदनं हर मामक-दुरितम् ।।
अरि-भीकर हलिसोदर परिपूर्णसुखाब्धे
नरकांतक नरपालक परिपालितजलधे ।
हरिसेवक शिव’नारायणतीर्थ’परात्मन्
मधुसूदन मधुसूदनं हर मामक-दुरितम् ।।
श्री कन्हैया जी महाराज
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